अपनी मां के साथ उन्होंने बचपन में खूब संघर्ष किया। हालांकि ऐसा नहीं था कि उन्हें खेल में ही जाना था। परंतु मणिपुर की ही महिला वेटलिफ्टर कुंजुरानी देवी को इन्होंने खूब फॉलो किया जो उस वक्त एथेंस ओलंपिक में खेलने गई थीं। इसके बाद मीरा के जेहन में खेलों के प्रति रुझान जगी, जिसका नतीजा आज हम सब ने देखा।
मीराबाई चानू ने 49 किग्रा वर्ग में रजत पदक जीतकर ओलंपिक खेलों में भारत के वेटलिफ्टिंग पदक के 21 साल के इंतजार को खत्म किया और देश का खाता खोला। छब्बीस साल की वेटलिफ्टिर ने कुल 202 किग्रा (87 किग्रा + 115 किग्रा) से कर्णम मल्लेश्वरी के 2000 सिडनी ओलंपिक में कांस्य पदक से बेहतर प्रदर्शन किया। पर मीराबाई चानू की कहानी इतनी सी नहीं है। मीराबाई चानू ने अपने यहां तक के सफर में काफी संघर्ष किया है। उनके इसी जीत में छुपी है संघर्ष की कहानी। 8 अगस्त 1994 को मणिपुर के एक छोटे से गांव में जन्मीं मीराबाई बचपन से काफी हुनरमंद थीं। इनका गांव आधुनिक सुख सुविधाओं से वंचित था। यह राजधानी इंफाल से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर था। अपनी मां के साथ उन्होंने बचपन में खूब संघर्ष किया। हालांकि ऐसा नहीं था कि उन्हें खेल में ही जाना था। परंतु मणिपुर की ही महिला वेटलिफ्टर कुंजुरानी देवी को इन्होंने खूब फॉलो किया जो उस वक्त एथेंस ओलंपिक में खेलने गई थीं। इसके बाद मीरा के जेहन में खेलों के प्रति रुझान जगी, जिसका नतीजा आज हम सब ने देखा।
अपने छह भाई-बहनों में मीराबाई सबसे छोटी हैं। हालांकि मीरा के पिता कभी नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी खेलों में जाएं। लेकिन मां का उन्हें सहयोग जरूर मिलता था। आसपास का माहौल वैसा नहीं था कि लोग बेटियों को खेलों में आगे बढ़ाएं। लेकिन मीरा की जिद के सामने मां-बाप ने तो हार मानी ही, समाज भी कुछ नहीं बोल सका और मीरा आगे बढ़ती रहीं। मीरा ने जब वेटलिफ्टिंग के लिए प्रैक्टिस शुरू की तब उनके पास कुछ खास सुविधाएं नहीं थी। बांस की गठरियों के साथ प्रैक्टिस करती थीं। हालांकि यह भी बताया जाता है कि वह बचपन से ही बांस के गठरियां सर पर लादे दूर तक चले जाते थीं। ऐसा इसलिए था क्योंकि वह मां के साथ जंगल में लकड़ियां लाने जाते थीं। बाद में उन्होंने अपने गांव से 50-60 किलोमीटर की दूरी पर ट्रेनिंग के लिए जाना शुरू किया। लेकिन जिस तरह की डाइट उन्हें चाहिए थी वैसा नहीं मिल पा रहा था। वेटलिफ्टिंग के लिए इंसान को अपने शरीर को मजबूत रखना पड़ता है। ऐसे में रोजाना दूध और चिकन चाहिए होता है। लेकिन मीराबाई एक मध्यम परिवार से आती थीं। ऐसे में उनके लिए यह सब मुमकिन नहीं था। हालांकि उन्होंने कभी इसे अपने आड़े नहीं आने दिया।
11 साल में वह अंडर 15 चैंपियन बनी थी और 17 साल में जूनियर चैंपियन। मीरा खूब मेहनत करती रही लेकिन मां-बाप के पास संसाधन नहीं थी। ऐसे में उन्हें जरूरी चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ता था। बात यहां तक आ गई कि अगर वह रियो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई नहीं कर पाएंगी तो फिर खेल को छोड़ देंगी। लेकिन कहते हैं ना होता वही है जो ऊपर वाला चाहता है। मीरा के साथ भी यही हुआ। मीरा के लिए ऐसी नौबत नहीं आई। मीरा वर्ल्ड चैंपियनशिप के अलावा ग्लास्को कॉमनवेल्थ गेम्स में भी सिलवर मेडल जीत गईं। वेटलिफ्टिंग के अलावा मीरा को डांस करना बहुत अच्छा लगता है। वह नेहा कक्कर के गानों को खूब सुनती हैं। साथ ही साथ बॉलीवुड फिल्में देखती हैं और सलमान खान को पसंद करती हैं।
बात यह भी सच है कि मीरा के लिए रियो ओलंपिक खराब रहा था। वह रियो ओलंपिक में तो गई थीं लेकिन कहानी एकदम से अलग थी। खिलाड़ियों से पिछड़ना कोई नई बात नहीं है। लेकिन खेल को ही पूरा कर नहीं पाना यह सबसे बुरी बात है और यही मीराबाई चानू के साथ हुआ था। यह ऐसी चीज है जो खिलाड़ियों के मनोबल तक तोड़ देती है। लेकिन मीराबाई ने उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और टोक्यो ओलंपिक में वह कर दिखाया जो भारत ही क्या पूरे विश्व के लिए आज चर्चा का विषय है। पदक जीतकर वह रो पड़ीं और खुशी में उन्होंने अपने कोच विजय शर्मा को गले लगाया। बाद में उन्होंने ऐतिहासिक पोडियम स्थान हासिल करने का जश्न पंजाबी भांगड़ा करके मनाया। इस उपलब्धि से खुश उनकी खुशी मास्क से भी छुप नहीं रही थी जो पदक समारोह के दौरान और बढ गई।